कबीरदास जी के दोहे पार्ट1 लिरिक्स||kabir bas ji dohe part1 lyrics
आछे दिन पाछे गए, हरि से किया न हेत ।
अब पछताए होत क्या, चिड़िया चुग गयी खेत ॥
अर्थ: सुख के समय में भगवान् का स्मरण नहीं किया, तो अब पछताने का क्या फ़ायदा। जब खेत पर ध्यान देना चाहिए था, तब तो दिया नहीं, अब अगर चिड़िया सारे बीज खा चुकी हैं, तो खेद से क्या होगा।
आज कहै मैं काल भजू, काल कहै फिर काल
आज काल के करत ही, औसर जासी चाल।
अर्थ : लोग आज कहते हैं कि मैं कल से प्रभु का भजन करुॅंगा और कल कहतें हैं कि कल से करुॅंगा। इसी आज कल के फेरे में प्रभु के भजन का अवसर चला जाता है और जीवन व्यर्थ बीत जाता है।
आगि आंचि सहना सुगम, सुगम खडग की धार
नेह निबाहन ऐक रास, महा कठिन ब्यबहार।
अर्थ : अग्नि का ताप और तलवार की धार सहना आसान है किंतु प्रेम का निरंतर समान रुप से निर्वाह अत्यंत कठिन कार्य है।
आंखि ना देखे बापरा, शब्द सुनै नहि कान
सिर के केश उजल भये, आबहु निपत अजान।
अर्थ : मूर्ख अपने आँख से नहीं देख पाते हैं न हीं वे कानों से सुन पाते हैं। सिर के सभी बाल सफेद हो गये पर वे अभी पूरी मूर्खता में हैं। उम्र से ज्ञान नहीं होता और वे ईश्वर की सत्ता पर विश्वास नहीं कर पाते हैं।
आंखो देखा घी भला, ना मुख मेला तेल
साधु सोन झगरा भला, ना साकुत सोन मेल।
अर्थ : धी देखने मात्र से ही अच्छा लगता है पर तेल मुॅुह में डालने पर भी अच्छा नहीं लगता है। संतो से झगड़ा भी अच्छा है पर दुष्टों से मेल-मिलाप मित्रता भी अच्छा नहीं है।
आपा तजे हरि भजे, नख सिख तजे विकार ।
सब जीवन से निर्भैर रहे, साधू मता है सार ॥
अर्थ: जो व्यक्ति अपने अहम् को छोड़कर, भगवान् कि उपासना करता है, अपने दोषों को त्याग देता है, और किसी जीव-जंतु से बैर नहीं रखता, वह व्यक्ति साधू के सामान और बुद्धिमान होता है।
आरत कैय हरि भक्ति करु, सब कारज सिध होये
करम जाल भव जाल मे, भक्त फंसे नहि कोये।
अर्थ : प्रभु की भक्ति आर्त स्वर में करने से आप के सभी कार्य सफल होंगे। सांसारिक कर्मों के सभी जाल भक्तों को कमी फाॅंस नहीं सकते हैं। प्रभु भक्तों की सब प्रकार से रक्षा करते है।
आस करै बैकुंठ की, दुरमति तीनो काल
सुक्र कही बलि ना करै, तातो गयो पताल।
अर्थ : स्वर्ग की आशा में उसकी दुष्ट बुद्धि से उसके तीनों समय नष्ट हो गये। उसे गुरु शुक्राचार्य के आदेशों की अवहेलना के कारण नरक लोक जाना पड़ा।
आठ पहर यूॅ ही गया, माया मोह जंजाल
राम नाम हृदय नहीं, जीत लिया जम काल।
अर्थ : माया मोह अज्ञान भ्रम आसक्ति में संपूर्ण जीवन बीत गया। हृदय में प्र्रभु का नाम भक्ति नहीं रहने के कारण मृत्यु के देवता यम ने मनुष्य को जीत लिया है।
आतम अनुभव जब भयो, तब नहि हर्श विशाद
चितरा दीप सम ह्बै रहै, तजि करि बाद-विवाद।
अर्थ : जब हृदय में परमात्मा की अनुभुति होती है तो सारे सुख दुख का भेद मिट जाता है। वह किसी चित्र के दीपक की आस लौ की तरह स्थिर हो जाती है और उसके सारे मतांतर समाप्त हो जाते है।
आतम अनुभव ज्ञान की, जो कोई पुछै बात
सो गूंगा गुड़ खाये के, कहे कौन मुुख स्वाद।
अर्थ : परमात्मा के ज्ञान का आत्मा में अनुभव के बारे में यदि कोई पूछता है तो इसे बतलाना कठिन है। एक गूंगा आदमी गुड़ खांडसारी खाने के बाद उसके स्वाद को कैसे बता सकता है।
आवत गारी एक है, उलटन होय अनेक ।
कह कबीर नहिं उलटिये, वही एक की एक ॥
अर्थ: अगर गाली के जवाब में गाली दी जाए, तो गालियों की संख्या एक से बढ़कर अनेक हो जाती है। कबीर कहते हैं कि यदि गाली को पलटा न जाय, गाली का जवाब गाली से न दिया जाय, तो वह गाली एक ही रहेगी ।
आये है तो जायेगा, राजा रंक फकीर
ऐक सिंहासन चढ़ि चले, ऐक बांधे जंजीर।
अर्थ :इस संसार में जो आये हैं वे सभी जायेंगे राजा, गरीब या भिखारी। पर एक सिंहासन पर बैठ कर जायेगा और दूसरा जंजीर में बंध कर जायेगा। धर्मात्मा सिंहासन पर बैठ कर स्वर्ग और पापी जंजीर में बाॅंध कर नरक ले जाया जायेगा।
अब तो जूझै ही बनै, मुरि चलै घर दूर
सिर सहिब को सौपते, सोंच ना किजैये सूर।
अर्थ : अब तो प्रभु प्राप्ति के युद्ध में जूझना ही उचित होगा-मुड़ कर जाने से घर बहुत दूर है। तुम अपने सिर-सर्वस्व का त्याग प्रभु को समर्पित करो। एक वीर का यही कत्र्तव्य है।
अच्छे दिन पाछे गये, हरि सो किया ना हेत
अब पछितावा क्या करै, चिड़िया चुगि गयी खेत।
अर्थ : हमारे अच्छे दिन बीत गये पर हमने ईश्वर से प्रेम नहीं किया। अब पश्चाताप करने से कया लाभ होगा जब पक्षी खेत से सभी दाने चुन कर खा चुके है।
ऐसा कोई ना मिले, हमको दे उपदेस,
भौ सागर में डूबता, कर गहि काढै केस
अर्थ: कबीर संसारी जनों के लिए दुखित होते हुए कहते हैं कि इन्हें कोई ऐसा पथप्रदर्शक न मिला जो उपदेश देता और संसार सागर में डूबते हुए इन प्राणियों को अपने हाथों से केश पकड़ कर निकाल लेता।
ऐसी ठाठन ठाठिये, बहुरि ना येह तन होये
ज्ञान गुदरी ओढ़िये, काढ़ि ना सखि कोये।
अर्थ : एैसा वेश रहन सहन रखें की पुनःयह शरीर ना हो। पुनर्जन्म न हो। तुम ज्ञान की गुदरी ओढ़ो जो तुम से कोई ले न सके छीन न सके।
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय ।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ॥
अर्थ: अगर अपने भाषा से अहं को हटा दिया जाए, तो दूसरों के साथ खुद को भी शान्ति मिलती है।
अजार धन अतीत का, गिरही करै आहार
निशचय होयी दरीदरी, कहै कबीर विचार।
अर्थ : सन्यासी को दान में प्राप्त धन यदि कोई गृहस्थ खाता है तो वह निश्चय ही दरिद्र हो जायेगा। ऐसा कबीर का सुबिचारित मत है।
अंधे मिलि हाथी छुवा, अपने अपने ज्ञान
अपनी अपनी सब कहै, किस को दीजय कान।
अर्थ : अनेक अंधों ने हाथी को छू कर देखा और अपने अपने अनुभव का बखान किया। सब अपनी अपनी बातें कहने लगें-अब किसकी बात का विश्वास किया जाये।
अंधो का हाथी सही, हाथ टटोल-टटोल
आंखो से नहीं देखिया, ताते विन-विन बोल।
अर्थ : वस्तुतः यह अंधों का हाथी है जो अंधेरे में अपने हाथों से टटोल कर उसे देख रहा है । वह अपने आखों से उसे नहीं देख रहा है और उसके बारे में अलग अलग बातें कह रहा है । अज्ञानी लोग ईश्वर का सम्पुर्ण वर्णन करने में सझम नहीं है ।
अनराते सुख सोबना, राते निन्द ना आये
ज्यों जाल छुटि माछरि, तलफत रैन बिहाये।
अर्थ : प्रभु प्रेम से बिमुख नीन्द में सोते है परन्तु उन्हें रात में निश्चिन्तता की नीन्द नहीं आती है। जल से बाहर मछली जिस तरह तड़पती रहती है उसी तरह उनकी रात भी तड़पती हुई बीतती है।
अर्घ कपाले झूलता, सो दिन करले याद
जठरा सेती राखिया, नाहि पुरुष कर बाद।
अर्थ : तुम उस दिन को याद करो जब तुम सिर नीचे कर के झूल रहे थे। जिसने तुम्हें माॅं के गर्भ में पाला उस पुरुष-भगवान को मत भूलो। परमात्मा को सदा याद करते रहो।
अहिरन की चोरी करै, करै सुई की दान
उॅचे चढ़ि कर देखता, केतिक दूर बिमान।
अर्थ : लोग लोहे की चोरी करते हैं और सूई का दान करते हैं। तब उॅंचे चढ़कर देखते हैं कि विमान कितनी दूर है। लोग जीवन पर्यन्त पाप करते हैं और अल्प दान करके देखते हैं-सोंचते हैं कि उन्हें स्वर्ग ले जाने के लिये विमान कितनी दूर पर है और कब ले जायेगा।
बाहर क्या दिखलाये , अंतर जपिए राम |
कहा काज संसार से , तुझे धानी से काम ||
अर्थ: बाहरी दिखावे कि जगह, मन ही मन में राम का नाम जपना चाहिए। संसार कि चिंता छोड़कर, संसार चलाने वाले पर ध्यान देना चाहिए।
बाना देखि बंदिये, नहि करनी सो काम
नीलकंठ किड़ा चुगै, दर्शन ही सो काम।
अर्थ : संत की वेश भूषा देख कर उन्हें प्रणाम करैं। उनके कर्मों से हमारा कोई मतलव नहीं है। नीलकंठ पक्षी कीडा चुगता है। पर उसका दर्शण ही शुभ पून्य कारक होता है।
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर ।
पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर ॥
अर्थ: खजूर का पेड़ न तो राही को छाया देता है, और न ही उसका फल आसानी से पाया जा सकता है। इसी तरह, उस शक्ति का कोई महत्व नहीं है, जो दूसरों के काम नहीं आ सकती।
बैरागी बिरकत भला, गिरा परा फल खाये
सरिता को पानी पिये, गिरही द्वार ना जाये।
अर्थ : संसार की इच्छाओं से बिरक्त संत अच्छे है जो जंगल के गिरे हुऐ फल खा कर एंव नदी का जल पीकर निर्वाह करते है। परंतु किसी गृहस्थ के द्वार पर कुछ मांगने नहीं जाते है।
बेटा जाय क्या हुआ, कहा बजाबै थाल
आवन जावन हवै रहा, ज्यों किरी का नाल।
अर्थ : पुत्र के जन्म से क्या हुआ? थाली पीट कर खुशी क्यों मना रहे हो? इस जगत में आना जाना लगा ही रहता है जैसे की एक नाली का कीड़ा पंक्ति बद्ध हो कर आजा जाता रहता है।
भगती बिगाड़ी कामिया , इन्द्री करे सवादी |
हीरा खोया हाथ थाई , जनम गवाया बाड़ी ||
अर्थ: इच्छाओं और आकाँक्षाओं में डूबे लोगों ने भक्ति को बिगाड़ कर केवल इन्द्रियों की संतुष्टि को लक्ष्य मान लिया है। इन लोगों ने इस मनुष्य जीवन का दुरूपयोग किया है, जैसे कोई हीरा खो दे।
भक्ति दुहिली राम की, जस खाड़े की धार
जो डोलै सो कटि परै, निश्चल उतरै पार।
अर्थ : राम की भक्ति दुधारी तलवार की तरह है। जो संसारिक वासना से चंचल मन वाला है, वह कट कर मर जायेगा पर स्थिर बुद्धि वाला इस भव सागर को पार कर जायेगा।
भक्ति दुवारा सांकरा, राई दसवै भाये
मन तो मैगल होये रहै, कैसे आबै जाये।
अर्थ : भक्ति का द्वार अति संर्कीण है। यह राई के दसवें भाग के समान छोटा है। परंतु मन मदमस्त हाथी की तरह है-यह कैसे उस द्वार से आना-जाना कर पायेगा।
भक्ति गेंद चैगान की, भाबै कोई लेजाये
कहै कबीर कछु भेद नहि, कहा रंक कह राये।
अर्थ : भक्ति चैराहे पर रखी गेंद के समान है जिसे वह अच्छा लगे उसे ले जा सकता है। कबीर कहते हैं कि इसमे अमीर-गरीब,उॅंच-नीच,स्त्री पुरुष,मुर्ख-ज्ञानी का कोई भेद नहीं है।
भक्ति कठिन अति दुर्लभ है, भेस सुगम नित सोये
भक्ति जु न्यारी भेस से येह जाने सब कोये।
अर्थ : प्रभु भक्ति अत्यंत कठिन और दुर्लभ वस्तु है किंतु इसका भेष बना लेना अत्यंत सरल कार्य है। भक्ति भेष बनाने से बहुत उत्तम है-इसे सब लोग अच्छी तरह जानते हैं।
भरा होये तो रीतै, रीता होये भराय
रीता भरा ना पाइये, अनुभव सोयी कहाय।
अर्थ : एक धनी निर्धन और निर्धन धनी हो सकता है। परंतु परमात्मा का निवास होने पर वह कभी पूर्ण भरा या खाली नहीं रहता। अनुभव यही कहता है। परमात्मा से पुर्ण हृदय कभी खाली नहीं-हमेशा पुर्ण ही रहता है।
भरम ना भागै जीव का, बहुतक धरिये भेश
सतगुरु मिलिया बाहिरे, अंतर रहा अलेख।
अर्थ : प्राणियों का भ्रम जब तक नही मिटता है-भलेही वह अनेक वेश भूषा रख ले-उसे ईश्वर की प्राप्ति वाह्य जगत में भले मिल जाये पर उसकी अंतरात्मा खाली ही रह जाती है।
भीतर तो भेदा नहीं, बाहिर कथै अनेक
जो पाई भीतर लखि परै, भीतर बाहर एक।
अर्थ : हृदय में परमात्मा एक हैलेकिन बाहर लोग अनेक कहते है। यदि हृदय के अंदर परमात्मा का दर्शण को जाये तो वे बाहर भीतर सब जगह एक ही हो जाते है।
भेश देखि मत भुलिये, बुझि लिजिये ज्ञान
बिन कसौटी होत नहि, कंचन की पेहचान।
अर्थ : संत की वेश भूषा देख कर शंकित मत हो। पहले उनके ज्ञान के संबंध में समझ बुझ लो सोने की पहचान बिना कसौटी पर जाॅच किये नहीं हो सकती है।
भोग मोक्ष मांगो नहि, भक्ति दान हरि देव
और नहि कछु चाहिये, निश दिन तेरी सेव।
अर्थ : प्रभु मैं आप से किसी प्रकार भोग या मोक्ष नही चाहता हॅू। मुझे आप भक्ति का दान देने की कृपा करैं। मुझे अन्य किसी चीज की इच्छा नहीं है। केवल प्रतिदिन मैं आपकी सेवा करता रहूॅं।
भौसागर की तरास से, गुरु की पकरो बांहि
गुरु बिन कौन उबारसि, भौजाल धरा माहि।
अर्थ : इस संसार सागर के भय से त्राण के लिये तुम्हें गुरु की बांह पकड़नी होगी। तुम्हें गुरु के बिना इस संसार सागर के तेज धारा से बचने में और कोई सहायक नहीं हो सकता है।
भूला भसम रमाय के, मिटी ना मन की चाह
जो सिक्का नहि सांच का, तब लग जोगी नाहं।
अर्थ : अपने शरीर में भस्म लगा कर जो भूल गया है पर जिसके मन की इच्छायें नहीं मिटी है-वह सच्चा सिक्का नहीं है वह वास्तव में योगी संत नहीं है।
बोले बोल बिचारि के, बैठे ठौर सम्हारि
कहे कबीर ता दास को, कबहु ना आबै हारि।
अर्थ : खूब सोच समझ विचार कर बोलो और सही ढं़ग से उचित स्थान पर ही बैठो। कबीर कहते है कि ऐसा व्यक्ति हार कर नहीं लौटता है।
बूझ सरीखी बात हैं, कहाॅ सरीखी नाहि
जेते ज्ञानी देखिये, तेते संसै माहि।
अर्थ : परमांत्मा की बातें समझने की चीज है। यह कहने के लायक नहीं है। जितने बुद्धिमान ज्ञानी हैं वे सभी अत्यंत भ्रम में है।
बूँद पड़ी जो समुंदर में, जानत है सब कोय ।
समुंदर समाना बूँद में, बूझै बिरला कोय ॥
अर्थ: एक बूँद का सागर में समाना – यह समझना आसान है, लेकिन सागर का बूँद में समाना – इसकी कल्पना करना बहुत कठिन है। इसी तरह, सिर्फ भक्त भगवान् में लीन नहीं होते, कभी-कभी भगवान् भी भक्त में समा सकते हैं।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।
चाकी चली गुपाल की, सब जग पीसा झार
रुरा सब्द कबीर का, डारा पात उखार।
अर्थ : परमात्मा के चलती चक्की में संसार के सभी लोग पिस रहे है। लेकिन कबीर का प्रवचन बहुत ताकतवर है। जो भ्रम और माया के पाट पर्दा को ही उघार देता है और मोह
माया से लोगो की रक्षा हो जाती है|
चाल बकुल की चलत है, बहुरि कहाबै हंस
ते मुक्ता कैसे चुगे, परे काल की फांस।
अर्थ : जिसका चाल चलन बगुले की तरह छल कपट वाला है लेकिन संसार की नजर में वह हंस जैसा अच्छा कहलाता है-वह मुक्ति का मोती नहीं चुग सकता है। वह मृत्यु के फांस में अवश्य गिरेगा।
चार च्ंन्ह हरि भक्ति के, परगट देखै देत
दया धरम आधीनता, पर दुख को हरि लेत।
अर्थ : प्रभु के भक्ति के चार लक्षण हैं जो स्पष्टतः दिखाई देते हैं। दया,र्धम,गुरु एंव ईश्वर की अधिनता तथ् दुख का तरता- तब प्रभु उसे अपना लेते है।
चंदन जैसे संत है, सरुप जैसे संसार
वाके अंग लपटा रहै, भागै नहीं बिकार।
अर्थ : संत चंदन की भाॅंति होते है और यह संसार साॅंप की तरह विषैला है। किंतु साॅंप यदि संत के शरीर में बहुत दिनों तक लिपटा रहे तब भी साॅंप का विष-विकार समाप्त नहीं होता है।
चहुॅ दिस ठाढ़े सूरमा, हाथ लिये हथियार
सब ही येह तन देखता, काल ले गया मार।
अर्थ : चारों दिशाओं में वीर हाथों में हथियार लेकर खड़े थे। सब लोग अपने शरीर पर गर्व कर रहे थे परंतु मृत्यु एक ही चोट में शरीर को मार कर ले गये।
चली जो पुतली लौन की, थाह सिंधु का लेन ।
आपहू गली पानी भई, उलटी काहे को बैन ॥
अर्थ: जब नमक सागर की गहराई मापने गया, तो खुद ही उस खारे पानी मे मिल गया। इस उदाहरण से कबीर भगवान् की विशालता को दर्शाते हैं। जब कोई सच्ची आस्था से भगवान् खोजता है, तो वह खुद ही उसमे समा जाता है।
चलो चलो सब कोये कहै, पहुचै बिरला कोये
ऐक कनक औरु कामिनि, दुरगम घाटी दोये।
अर्थ : परमात्मा तक जाने के लिये सभी चलो-चलो कहते है पर वहाॅ तक शायद ही कोई पहूॅच पाता है। धन और स्त्री रुपी दो अत्यंत खतरनाक बीहड़ घाटियों को पार कर के ही
कोई परमात्मा की शरण में पहूॅच सकता है।
चलती चाकी देखि के, दिया कबीरा रोये
दो पाटन बिच आये के, साबुत गया ना कोये।
अर्थ : चलती चक्की को देखकर कबीर रोने लगे। चक्की के दो पथ्थरों के बीच कोई भी पिसने से नहीं बच पाया। संसार के जन्म मरण रुपी दो चक्को के बीच कोई भी जीवित नहीं रह सकता है।
चतुर विवेेकी धीर मत, छिमावान, बुद्धिवान
आज्ञावान परमत लिया, मुदित प्रफुलित जान।
अर्थ : एक भक्त समझदार,विवेकी,स्थिर विचार,क्षमाशील,बुद्धिमान,आज्ञाकारी,ज्ञानी एंव मन से सदा खुस रहने वाला होता है। ये सब भक्तके लक्षण है।
चतुराई हरि ना मिलय, येह बातों की बात
निसप्रेही निर्धार का, गाहक दीनानाथ।
अर्थ : चतुराई से प्रभु की प्राप्ति संभव नहीं है। यह एक मूल बात है। एक निर्मोही एवं निराधार को प्रभु दीनानाथ अपना बना लेते है।
चिड़िया चोंच भरि ले गई, घट्यो न नदी को नीर ।
दान दिये धन ना घटे, कहि गये दास कबीर ॥
अर्थ: जिस तरह चिड़िया के चोंच भर पानी ले जाने से नदी के जल में कोई कमी नहीं आती, उसी तरह जरूरतमंद को दान देने से किसी के धन में कोई कमी नहीं आती ।
चिंता ऐसी डाकिनी, काट कलेजा खाए ।
वैद बेचारा क्या करे, कहा तक दवा लगाए ॥
अर्थ: चिंता एक ऐसी चोर है जो सेहत चुरा लेती है। चिंता और व्याकुलता से पीड़ित व्यक्ति का कोई इलाज नहीं कर सकता।
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